Chhava - छावा के बाद की पूरी कहानी

  Chhava - छावा के बाद की पूरी कहानी 


छत्रपति शाहूजी और पेशवा का पराक्रम

सन 1689 ईस्वी। रायगढ़ का किला मुगलों से घिरा हुआ था। मराठा साम्राज्य के दूसरे छत्रपति, वीर संभाजी महाराज, शौर्य और साहस का परिचय देते हुए, मुगलों का सामना कर रहे थे। लेकिन दुर्भाग्य ने उस दिन उनका साथ छोड़ दिया। कड़ी यातनाओं के बाद, औरंगजेब ने संभाजी महाराज की नृशंस हत्या कर दी। उनकी वीरगति के साथ ही, मराठा साम्राज्य पर काले बादल मंडराने लगे।

संभाजी महाराज की पत्नी यशुबाई, सात वर्षीय पुत्र शाहूजी, पुत्रवधु सावित्रीबाई और सौतेले भाई मदन सिंह को मुगल सेना ने बंदी बना लिया। अब मराठा सिंहासन संभालने की जिम्मेदारी संभाजी महाराज के छोटे भाई राजाराम महाराज पर आ गई। उन्हें छत्रपति घोषित किया गया, पर उनके लिए यह ताज कांटों भरा था।

राजाराम महाराज ने अपने बड़े भाई की हत्या का प्रतिशोध लेने और भतीजे शाहूजी को मुक्त कराने का प्रण लिया। संताजी घोड़पड़े जैसे पराक्रमी योद्धाओं के सहयोग से उन्होंने मुगलों को करारी मात दी, लेकिन शाहूजी को कैद से छुड़ाना उनके लिए असंभव रहा।

सन 1700 ईस्वी में राजाराम महाराज का भी निधन हो गया। उनके पुत्र शिवाजी द्वितीय छत्रपति बने और उन्होंने संघर्ष जारी रखा।


मुगल चालाकी और शाहूजी की रिहाई

इधर, शाहूजी की कैद के लगभग बीस वर्ष बीत चुके थे। सन 1707 में जब औरंगजेब की मृत्यु हुई, तब उसका उत्तराधिकारी बहादुरशाह प्रथम, दिल्ली की गद्दी पर बैठा। उसने मराठों को आपस में उलझाने के लिए शाहूजी को रिहा करने का निर्णय लिया। उसकी मंशा थी कि जब शाहूजी सतारा लौटें, तो मराठे उत्तराधिकार के लिए आपस में ही संघर्ष करें।

शाहूजी जब सतारा पहुंचे, तब उनकी शिवाजी द्वितीय से कुछ मतभेद हुए, लेकिन अंततः वे मराठा साम्राज्य के पाँचवें छत्रपति के रूप में सिंहासन पर आरूढ़ हुए। शिवाजी द्वितीय कोल्हापुर चले गए और वहाँ एक अलग राज्य की स्थापना की। परंतु, शाहूजी की माता यशुबाई और पत्नी सावित्रीबाई अब भी मुगल कैद में थीं। बहादुरशाह ने उन्हें बंधक बनाए रखा ताकि शाहूजी संधि का उल्लंघन न कर सकें।


पेशवा बालाजी विश्वनाथ का उदय

मराठा साम्राज्य में अब एक बड़ा बदलाव आया। पेशवाई का भार बालाजी विश्वनाथ के कंधों पर आ गया। उन्होंने निर्णय लिया कि छत्रपति अब युद्ध में भाग नहीं लेंगे। युद्ध का नेतृत्व पेशवा करेंगे, और छत्रपति का रक्त व्यर्थ नहीं बहेगा।

सन 1713 में, बालाजी विश्वनाथ पेशवा बने। उनके सामने दो बड़ी चुनौतियाँ थीं—पहली, मुगलों का प्रभुत्व और दूसरी, कोल्हापुर में अलग मराठा राज्य का उदय। उन्होंने इन दोनों मोर्चों पर कूटनीतिक तरीके से विजय प्राप्त करने की ठानी।


दिल्ली में मराठा पराक्रम

सन 1718 में, बालाजी विश्वनाथ और उनके पुत्र बाजीराव बल्लाळ मराठा शक्ति का लोहा मनवाने दिल्ली पहुँचे। मुगलों की आंतरिक कलह और मराठा योद्धाओं के आक्रामक हमलों से घबराकर मुगल सत्ता डगमगाने लगी। पेशवा ने अपनी शर्तें मुगलों पर थोप दीं। मराठों को दक्षिणी प्रांतों से चौथ और सरदेशमुखी कर वसूलने का अधिकार मिला, गुजरात पर भी अधिकार स्वीकार करवाया गया, और सबसे महत्वपूर्ण—शाहूजी को छत्रपति के रूप में मुगलों की स्वीकृति मिली।

लेकिन इसके साथ ही, उन्होंने एक और बड़ी विजय हासिल की—लगभग 30 वर्षों से मुगलों की कैद में पड़ी यशुबाई और सावित्रीबाई की मुक्ति!

मराठा गौरव की पुनर्स्थापना

दिल्ली से छूटकर, राजमाता यशुबाई और सावित्रीबाई सतारा लौट आईं। उनकी वापसी केवल एक माँ और पुत्र के मिलन की कहानी नहीं थी, यह मराठा स्वाभिमान और स्वतंत्रता की पुनर्स्थापना का प्रतीक थी। यह बालाजी विश्वनाथ और बाजीराव बल्लाळ के कूटनीतिक और सैन्य पराक्रम की गाथा थी।


मराठा साम्राज्य ने यहाँ से अपने स्वर्णकाल की ओर कदम बढ़ाए, और आने वाले वर्षों में पेशवाओं के नेतृत्व में भारत के सबसे शक्तिशाली साम्राज्य के रूप में उभरा।

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